दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तरी भारत में स्थित इलाहाबाद जिसे अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता है। एक पवित्र तीर्थ स्थान है। जहां गंगा ,यमुना ,सरस्वती तीन पवित्र नदियों का मिलन होता है। यह शहर अपनी सम्मपन्ता ,संस्कृति ,आर्थिक , पौराणिक मान्यताओं और धार्मिक गतिविधियों के लिए जाना जाता रहा है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम प्रयाग ही है। यह माना जाता है ,कि चार वेदों की प्राप्ति के पश्चात ब्रह्मा ने यहीं पर यज्ञ किया था। इसीलिए प्रथम यज्ञ स्थल होने के कारण इसे प्रयाग कहा जाता है। कालांतर में मुगलिया सल्तनत के छठे बादशाह अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण करते हुए इसे इलाहावास किया। अर्थात जहां पर अल्लाह का वास होता है। और कालांतर में मुगलिया सल्तनत के आठवे बादशाह अकबर के पोते शाहजहां ने इलाहावास का नाम इलाहाबाद बना दिया। पौराणिक काल से ही प्रयाग अत्यंत पवित्र स्थान माना जाता रहा है। जिसकी पवित्रता गंगा ,यमुना ,सरस्वती के संगम के कारण है। वेदो से लेकर पुराणों तक संस्कृत कविताओं से लेकर लोक साहित्यकार के रचनाकारों ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इसी कारण इलाहाबाद संगम नगरी कहा जाता है। प्रयाग के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है:-
को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ , कलुष पुंज कुंजर मगराऊ। सकल काम प्रद तीरथराऊ, वेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।
प्रागैतिहासिक काल को देखा जाए तो इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य स्थित बेलन घाटी में पुरापाषाण काल के पशुओं के अवशेष प्राप्त हुए थे। बेलन घाटी में विंध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीन अवस्थाएं पुरापाषाण काल ,मध्य पाषाण काल,नवपाषाण काल एक के बाद एक पाई जाती है। भारत में नव पाषाण युग की शुरुआत ईसापूर्व छठी शताब्दी के आस पास हुई थी। इसी समय से उप महाद्वीपों में चावल, गेहू , जौ जैसी फसलें उगाई जाने लगी थी। इलाहाबाद जिले के स्थलों की यह विशेषता है कि यहां ईसा पूर्व छठी शताब्दी से चावल का उत्पादन होता था। इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का उद्भव भले ही सिंधु घाटी सभ्यता से हुआ हो पर विकास पचिमी गंगा घाटी में हुआ है। भारत के अंतिम हिंदू सम्राट माने जाने वाले हर्षवर्धन के समय में भी प्रयास के महत्व अपने चरम पर थी।

घाट परंपरा
प्रयाग में घाटों की ऐतिहासिक परंपरा रही है यहां स्थित दशाश्वमेध घाट पर प्रयाग महत्व के विषय में मार्कंडेय ऋषि द्वारा अनुप्राणित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने 10 यज्ञ किये। और अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना भी यही से की थी। प्रभु श्री राम के वंशज महाराज इला यही राज्य किया करते थे उनकी संतान व चंद्रवंशी राज पुरवारा और गंधर्व मिलकर इसे घाट के किनारे अग्निहोत्री किया करते थे। धार्मिक अनुष्ठानों और स्नान आदि हेतु से प्रशिद्ध त्रिवेणी घाट वह जगह है ,जहां पर यमुना पूरी दृढ़ता के साथ स्थिर हो जाती है। त्रिवेणी घाट से ही थोड़ा आगे संगम घाट है। 1538 ईस्वी में अकबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किले की प्राचीर जहां यमुना स्पर्श करती है। इसी घाट से पश्चिम की ओर थोड़ा बढ़ने पर सरस्वती नदी के समक्ष सरस्वती घाट है। रसूलाबाद घाट प्रयाग का सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। 1838 में अंग्रेजों ने अकबर के किले का पुनर्निर्माण करवाया। इस किले में भारतीय और नूरानी वस्तु कला का मेला आज भी दिखाई देता है। इस किले में २०३२ ईसापूर्व का अशोक का स्तम्भ ,जोधाबाई महल ,पातालपुरी मंदिर ,सरस्वती कोप और अक्षय वट स्थित है। इसी प्रकार मुगली शोभा बिखेरता खुसरो बाग मुगलिया सल्तनत के सातवे बादशाह जहांगीर के बड़े पुत्र खुसरो द्वारा बनवाया गया था।

संगम तट पर लगने वाले कुंभ मेले के बिना प्रयाग का इतिहास अधूरा है। प्रत्येक 12 वर्ष में यहां पर महाकुंभ मेले का आयोजन होता है। जो कि अपने में एक लघु भारत का दर्शन करने के समान है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगने वाले माघ स्नान और कल्पवास का भी आध्यात्मिक महत्व है।