हमारे देश में बच्चों को नालंदा विश्वविधालय के बारे में जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह ब्रिटिश और वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों पर आधारित है।
उदाहरण के लिए, आजाद भारत के बच्चों को अब भी बताया जाता है कि वास्कोडि गामा ने भारत की खोज की थी।
यह इतिहास यूरोप के बच्चों के लिए भले ही मायने रखता हो, मगर भारत के बच्चों के लिए नहीं।
इसी प्रकार, हमारे इतिहास में कोलंबस समुद्री डाकू को जिस प्रकार महिमामंडित कर प्रस्तुत किया जाता है, वह भी चिंता से भरा है।
वास्को डिगामा भी समुद्री लुटेरा ही था।
आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बच्चों को प्राचीन भारत की सही जानकारी नहीं दी जाती है।
उन्हें केवल विदेशी आक्रांताओं की सूची दी जाती है।
द्रविड़ों को मूल निवासी
और आर्यों को बाहरी बताना अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का ही हिस्सा था जिसे आज हमारे धर्मनिरपेक्ष और विधर्मी भाई आगे बढ़ाने में लगे हैं।
बौद्धकाल में भारत शिक्षा का केंद्र था।
बौद्ध विश्वविद्यालय विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी।
नालंदा विश्वविधालय के अतीत और उसके गौरवशाली इतिहास को सभी जानते हैं।
कहां है नालंदा :
नालंदा विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 95 किलोमीटर, राजगीर से 12 किलोमीटर, बोधगया से 90 किलोमीटर (गया होकर), पावापुरी से 26 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
इस विश्वविद्यालय के खंडहरों को अलेक्जेंडर कनिंघम ने तलाशकर बाहर निकाला था।
जिसके जले हुए भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव की दास्तां बयां करते हैं।
ह्वेनसांग के लेखों के आधार पर ही इन खंडहरों की पहचान नालंदा विश्वविद्यालय के रूप में की गई थी।
7वीं शताब्दी में भारत आए ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में न केवल विद्यार्थी रहे, अपितु बाद में उन्होंने एक शिक्षक के रूप में भी यहां अपनी सेवाएं दी थीं।
चीनी यात्री ह्वेनसांग :
जब ह्वेनसांग भारत आया था, उस समय नालंदा विश्वविद्यालय में 8,500 छात्र एवं 1,510 अध्यापक थे।
अनेक पुराभिलेखों और 7वीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहां जीवन का महत्वपूर्ण 1 वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था।
प्रसिद्ध बौद्ध ‘सारिपुत्र’ का जन्म यहीं पर हुआ था।
विश्वविद्यालय का स्थापना काल :
इस महान नालंदा विश्वविधालय की स्थापना गुप्तकालीन सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने 413-455 ईपू में की।
इस विश्वविद्यालय को कुमारगुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग और संरक्षण मिला।
ह्नेनसांग के अनुसार 470 ई. में गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक सुंदर मंदिर निर्मित करवाकर इसमें 80 फुट ऊंची तांबे की बुद्ध प्रतिमा को स्थापित करवाया।
नि:शुल्क पढ़ाई :
नालंदा विश्वविधालय में शिक्षा, आवास, भोजन आदि का कोई शुल्क छात्रों से नहीं लिया जाता था।
सभी सुविधाएं नि:शुल्क थीं।
राजाओं और धनी सेठों द्वारा दिए गए दान से इस विश्वविद्यालय का व्यय चलता था।
इस विश्वविद्यालय को 200 ग्रामों की आय प्राप्त होती थी।
विश्वविद्यालय का परिचय :
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था।
इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था।
उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी।
अभी तक खुदाई में 13 मठ मिले हैं। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे।
मठों के सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे।
मंदिरों में बुद्ध भगवान की मूर्तियां स्थापित थीं।
केंद्रीय विद्यालय में 7 बड़े कक्ष थे और इसके अलावा 300 अन्य कमरे थे।
इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी।
दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।
प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुआं बना था।
8 विशाल भवन, 10 मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थीं।
जैन ग्रंथ ‘सूत्रकृतांग’ में नालंदा के ‘हस्तियान’ नामक सुंदर उद्यान का वर्णन है।
ये 3 प्रमुख पुस्तकालय थे-
रत्नोदधि, रत्नसागर और रत्नरंजक।
एक पुस्तकालय भवन तो 9 तलों का हुआ करता था।
इन पुस्तकालयों में हस्तलिखित हजारों पुस्तकें और छपी हुई लाखों किताबें थीं।
कई दुर्लभ पुस्तकों का भंडार था।
छात्र और शिक्षक :
यह विश्व का प्रथम पूर्णत: आवासीय विश्वविद्यालय था और विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10,000 एवं अध्यापकों की संख्या 2,000 थी। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्वविद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे, जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट्ट भी इस विश्वविद्यालय के एक समय कुलपति रहे थे।
विश्वभर के छात्र पढ़ते थे :
इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं, बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, श्रीलंका, फारस, तुर्की और ग्रीक से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म के साथ ही अन्य ज्ञान का प्रचार करते थे।
छात्रों का चयन :
विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय में काफी कठिनाई से होता था, क्योंकि केवल उच्च कोटि के विद्यार्थियों को ही प्रविष्ट किया जाता था। इसके लिए बाकायदा परीक्षा ली जाती थी।
इस्लाम के नाम पर जला दिया :
इस नालंदा विश्वविधालय की 4थी से 11वीं सदी तक अंतररराष्ट्रीय ख्याति रही थी, लेकिन इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नामक एक मुस्लिम तुर्क लुटेरे ने 1199 ईस्वी में इसे जलाकर नष्ट कर दिया। इस कांड में हजारों दुर्लभ पुस्तकें जलकर राख हो गईं। महत्वपूर्ण दस्तावेज नष्ट हो गए। कहा जाता है कि वहां इतनी पुस्तकें थीं कि आग लगने के बाद भी 3 माह तक पुस्तकें धू-धू करके जलती रहीं।